शनिवार, १५ जानेवारी, २०११

महाकवी कालिदास रचित " रघु वंश " सर्ग ४ - ऋचा 61 to 70

यवनी मुख पद्द्मांच्या मधुमंदा न सहे रघु /

अकाल मेघ पदद्मातें बोलतो विकसा बंधु // ६१ //


अश्वरोही अनार्यांशी तुमुल संग्राम ही अति /
धुतीनें भरल्या व्योमीं टंकरें भट जानिती // ६२ //


अर्ध चंद्र शरांनी तो शिरें इमश्रुल पडुनी /
पोळ्यांनी मध माशांच्या किं मही टाकी झांकुनी // ६३ //


आले शरण बाकीचे पगडया उतारोनियां /
महात्मा थांबवी क्रोघा शीश नम्र बघोनिया // ६४ //


आसवें मग विरनीं युद्धाचे श्रम हारिले /
चर्म रत्नांवरीं जेथें द्राक्षा मंड़प शोभलें //६५ //


तेथोनि उत्तरे जाई सूर्यापरी रघु महा /
करें तो सगरां शोषी उदिच्यां हा शरें पहा // ६६ //


मार्गश्रमां निवाराया सिंधूच्या तटि लोळले /
तद्श्व झाडिती खांदे कुंकुम केसर मखिले // ६७ //


रघु हुण नराधींपा दावी विक्रम आपुला /
कपोल वक्ष ताडोनीं श्त्रियानीं शोक मांडिला // ६८ //


पराक्रम रणीं त्याचा कांबोज नच साहती /
बद्धगजीं ओढीलेल्या अक्रोटां सहि वांकती //६९ //


त्यांच्या उत्तम वाजींना उंचशा द्रव्य राशिनां /
उपायनार्थ पावे तो विकार न शिवे मना // ७० //

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