सोमवार, १५ नोव्हेंबर, २०१०

महाकवी कालिदास रचित " रघु वंश " सर्ग ४ - ऋचा 6-10

 भुपा सान्निध राहोनि  जें बंदी त्यासं सेविती / 
पुरवुनी सार्थ शब्दानां वर्णी त्या तें सरस्वती // ६ //

मनु इत्यादि भूपांनी भोगिली मेदिनी जरी /
अनुराग तया दावी अभुक्ता कामिनी परी // ७  //

यथा पराध दंडानें  जनातें  मान्य  हो  मनीं  /
समशीतोष्ण तो भासे भानूसा दक्षिणायनी // ८ //

पित्या परि गुनाधिक्यें पाहोनि स्तविती  मुला /
मधुर आम्रफलें आल्या कोणी ना स्मरती फुला // ९ //

धर्मनीती  कूटनीती नव भूपास सांगती /
शास्त्रज्ञ आयके दोन्ही स्विकारी पहिलीच ती // १० //

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