मंगळवार, २८ सप्टेंबर, २०१०

महाकवी कालिदास रचित " रघु वंश " 8

सर्वाथ आश्वा प्रती गुप्त देखुनी /
विस्मीत सैनिक समस्त ही मनी /
स्वछद तेने श्रुत किर्ती त्या स्थली /
वशीष्ट धेनु समयास पातली // ४१ //

पवित्र गोमुत्र आशा जला जनें /
दिलीप सूनु परीमार्जी लोचने /
अतींद्रिय द्दष्टी तयास लाभता /
तत्काळ गुप्तासहि होय पाहता //४२ //

प्रयाण जो पूर्व दिशेप्रती करी /
असा रघूने तवं देखिला हरी /
पुनः पुनः मातलीला त्वरा करी /
रथास यज्ञाश्व करोनी जो हरी // ४३ //

बघोनिया एक सहस्र लोचना /
पिंगास्व वज्री हरी आणिला मना /
कुमार गंभीर नभास जो शिवी /
अशा खरें बोलुनी त्यासं थांबवी // ४४ //

विद्वज्जनी ज्यास सुरेंद्र मानिजे /
यज्ञात आधी हवि ज्यास देईजे /
सदैव ध्यावें तुज ज्या मती अशी /
तत्कार्य नाशास कसा प्रवर्त शी // ४५ //

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