मंगळवार, ७ डिसेंबर, २०१०

महाकवी कालिदास रचित " रघु वंश " सर्ग ४ - ऋचा 31-40

रघुवंश सर्ग - ४


वृत्त:-- अनुष्टुभ


प्रतापी रघू तो लंघी मारू भूमि जलाशयें /
नौकां करोनि नद्यानां अरण्यां छेदुनी स्वयें // ३१ //


महासेना जणू चाले पूर्व सागर गामिनी /
भगीरथ पथा लक्षी गंगा शिव जटे तुनि // ३२ //


भ्रष्ट भिन्न अशां वृक्षां सोडितो गज चालतां /
तश्या त्याज जितां भूपां टाकितो रघू चालतां // ३३ //


जिंकोनि पूर्व देशांना सन्नीध रघू पातला /
ताल वृक्षे गमें श्याम सिंधुचा तट जोभला // ३४ //


उध्दटां काढि उपटोनी नदी वेगापरी रघू /
सुहम राजे स्विकारीती वेताची वृत्ति ती लघु // ३५ //


नौकावली अशां वंगां त्यानें जिंकोनिया बलें /
प्रवाहीं मग गंगेच्या जयस्थंभ उभारिले // ३६ //


अतीव नम्र ते झाले पुनश्र्च स्थापिल्यावरी /
शालि धन्यापरी देती करभार परोपरी // ३७ //


गजांचा करुनी सेतु कपिशा उतरोनिया /
निघे उत्कल मार्गांनें कलिंगा प्रति जावया // ३८ //


महेंद्र पर्वत शीरीं स्व पराक्रम दावि तो /
जेंवी हस्तिप दंतीच्या शीरीं अंकुश मारितो // ३९ //


गज वाहन कलिंग अश्त्रानें रघूशी लढे /
जणू वज्रीवरी देखा पर्वतें लोटिले कडे // ४० //

कोणत्याही टिप्पण्‍या नाहीत: