मंगळवार, १९ ऑक्टोबर, २०१०

महाकवी कालिदास रचित " रघु वंश " 11

कठोर ऐरावत ताउनी भुजा /
पत्रे वरी रेखितसें पुलो मजा /
तियेस विंधी रघु ,अग्नी भू रणी /
स्वनाम चिन्हाकित बाण मारुनी // ५६ //

मयूर पत्रांकित बाण सोडूनी /
घ्नजाहि वज्रांकित टाकी फाडूनी /
देवश्रींचे केशची मुंडिल्या परी /
सुरेंद्र कोपे मग त्या रघुवरी //५७ //

जयेंच्छूचे तुंबळ युद्ध माजले /
खाली वरी बाणचि बाण चालले /
भुजंग पंखान्वित क्रूर भासती /
तटस्थ सैनीक उभेच पाहती // ५८ //

निदानिचे अस्त्र आयोजिले जरी /
तथापि थाबे न कुमार केसरी /
स्ववैधुताग्निरघु, मेघसा हरी /
कदा न नाशी जरि वर्षला तरी //५९ //

हरीचिया चंदन लिप्त कोपरी /
प्रक्षुब्ध सिंधू परि गर्जना करी /
तदार्ध चंद्राकृती बाण योजुनी /
धनुर्गुनाला रघु टाकी छेदुनी // ६० //


त्यजोनि चाप बहुइंद्र कोपुनी /
बलिष्ठ शत्रुंस विनाश इच्छुनी /
समर्थ अन्द्री सही तोडण्यास जें /
सतेज वज्रा प्रती घेउनी सजे // ६१ //

क्रमश:

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