बुधवार, २४ नोव्हेंबर, २०१०

महाकवी कालिदास रचित " रघु वंश " सर्ग ४ - ऋचा 16-30

लुप्त इंद्रधनू होतां चापहस्त रघु गमें /
प्रजा कल्याण साधाया झटती तें अनुक्रमें // १६ //
 
श्वेत कामाला करी छत्र, काश चामर जरी /
शरद शोभा न पावेची त्याची केल्या बरोबरी // १७ //
 
प्रसन्न मुख राजातें  धवल कांती शशी प्रती /
विलोकितां जना प्रेमा न हो कमी न हो अती //१८ //
 
शुभ्रत्वे  यश तें त्याचें वाटे झालें  चहूंकडे  /    
हंस पंक्तीत, तारांत शुभ्र पद्मे सरीं खडे // १९ //    
 
इक्षु छायेंत बैसोनी पिकें राखिती ज्या स्त्रिया /
गाती रक्षक कीर्तीला मुलें करिती साथ ज्या // २० //
 
अगस्ति उदया संगें जलें  निर्मल जाहलीं  /                   
अजय शंकी शत्रु मनें  महा उद्वेग पावलीं  // २१ //
 
मदोन्मत्त वृषांनी तै नदी तीरांस  खणि लें  /                     
पराक्रम रघुचा जो त्या चें नाटक मांडिलें   // २२ //    
 
सेउनी सप्तपर्णांच्या पुष्पांचा गंध तत्करी /          
श्राविति मद इर्षेनें सप्तांगांनी परोपरी // २३ //
 
नद्या स्वल्प जला केल्या, मार्गां शोषुनि पंकिलां /
शरद सांगे रघु लागीं उठा दिग्विजया चला // २४ //
 
अश्व नीराजनी  देतां विद्युक्त मग आहुती /
ज्वालारुप करें अग्नि जया देत रघु प्रती // २५ //
 
रक्षोनि श्रान्त दुर्गांते नाशोनि रिपु आवघे /              
षट् विधी  सैन्य घेवोनी रघु दिग्विजया निघे // २६ //
 
वयस्क पौर योषा त्या लाह्या फ़ेकिति त्यावरी /       
क्षीर सागरीं  स्वेतोर्मी जेंविं नारायणा वरी //२७ //   
 
इन्द्र तुल्य रघु चाले आधीं पूर्व दिशे कडे /     
वायूनें  फडकती  झेंडे सारिती शत्रु दों कडे // २८ //
  
मेघा परि गज श्रेणी रथें उधळिता धुळी /  
नभा परी क्षिती भासे, नभ भासे  क्षितीपरी // २९ //
 
कीर्ती मागोनियां  घोष तया मागें धूली येतसे /              
त्या मागें रथ इत्यादि सेना चत्वार जात से // ३० //

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