सोमवार, २४ जानेवारी, २०११

महाकवी कालिदास रचित " रघु वंश " सर्ग ४ - ऋचा 71 -92



अश्वसेना साह्याने चढे हिमालयावरी /

पाद धुळी मुळे वाटे शिखरे चालली वरी // ७१ //


सैन्यापरी बली सिंह  कंदरी स्वथ झोपती /
तदघोषे वळुनी किंचित निर्भयत्वास दाविती // ७२ //


भूर्जी जें मंद वाहोनी  वंश कुंजात नादती /
गंगावु कण  घेवोनी वायू भूपास सेविती // ७३ //


छायेत थांबले योद्धे  रुद्राक्ष वन पाहुनी /
पाषाणा गंध ये जेथें  कस्तुरी मृग बैसुनी // ७४ //


देवदार तंरू संगे  गज बंधास बांधियले /
रात्री दिव्योषाधी तेथे अतैल दीप शोभले // ७५ //


पडाव सोडुनी जातां  बंधन क्षत ज्यावरी /
ते देवदार भिल्लाना  सांगती उंच ते करी // ७६ //


पर्वतीय गणा संगे  घोर ते युद्ध जाहले /
पाषाण भिडता बाणां अग्नी स्फुल्लिंग चालले // ७७ //


शरें उत्सव संकेता  नीरुच्छाह करोनिया /
यशगाथा स्वबाहूच्या  किन्नरा लावी गावया // ७८ //


दावितो सार दोघांचे उपहारचि हातिचे /
अद्रिला बल राजाचे  नृपा सत्व हिमाद्रिचे // ७९ //


तेथोनि खालती आला  अखंड येश स्थापुनी /

रावणे हलविले ऐसा  जाई कैलास लाजुनी // ८० //


लंघिता ब्रम्ह पुत्राते आसाम भूप कांपती /
गजांच्या शृंखला बंघे  काला गुरु थरारती // ८१ //


वर्षे विना खगा झांकी धुलीजी रथ मार्गीचा /
कामरूपां न साहे ती  सेनेची गोष्ट कोठची // ८२ //


कामरूप रघुतें जो इंद्राहूनि पराक्रमी /
मत्त ज्या दंतिनें अन्यां जिंके त्यां अर्पुनी नमी // ८३ //


भूप तो कामरूपाचा  स्वर्ण पीठाधि देवता /
तत्पाद कांति मानोनी झाला रत्नेच पूजिता // ८४ //


दिशास जिंकुनी गाजी  फिरला स्थापुनी धुली /
रथांची शिरी राज्याच्या होती छत्राविणे खुली // ८५ //


विश्व जिन्नाम यज्ञातें करी सर्वस्व अर्पिण्या /
महात्मे जोडिती अर्था मेघा परि विसर्जीण्या // ८६ //


यज्ञातीं सचिव मतें  करोनि मना /
राजांच्या हरित पराजयाप माना // ८७ //

दीर्घांत पूर विरहे अधीर त्यांसी /
आज्ञा दे निज नगरास जावयासी // ८८ //


तें युक्त ध्वज कुलीशान पत्र चिन्हें /
राजाच्या चरण युगां प्रसन्न तेने // ८९ //


प्रस्थान प्रणति निमित्य आक्रोनिया /
जाती गौर सुम रजासि टाकोनिया // ९० //


श्री कालिदास रचना रघुवंश ग्रंथ /
काव्यांत आद्य गणपती इजलागी संत // ९१ //


वर्णोनि ज्यांत रघू दिग्विजयास सांग /
केला समाप्त बहु गोड चतुर्थ सर्ग // ९२ //

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